Lie Detector Test कैसे काम करता है?

कांग्रेस नेता सज्जन कुमार, 1984 के सिख विरोधी दंगे भड़काने के आरोपों का सामना कर रहे हैं. इसी सिलसिले में सज्जन कुमार का 30 मई को लाय डिटेक्टर टेस्ट होना तय किया गया था. वैसे झूठ पकड़ने वाली इस मशीन से कितना झूठ सामने आता है, यह अपने आप में एक शोध का विषय है. दुनिया भर के कई देशों में अभी भी पॉलिग्राफिक मशीन से झूठ पकड़ने की कोशिश की जाती है. वहीं कई शोधकर्ता यह दावा करते आए हैं कि झूठ पकड़ने वाली मशीन दरअसल मन को बहलाने की बात है.
कैसे काम करती है यह मशीन
बताया जाता है कि अगर आप झूठ बोल रहे हैं तो आपके दिल की धड़कन तेज़ होगी. आपका ब्लड प्रेशर बढ़ेगा, पसीना आने लगेगा. पॉलिग्राफ मशीन ऐसे ही शारीरिक बदलावों को पकड़ती है जिससे यह तय किया जाता है कि व्यक्ति झूठ बोल रहा है या नहीं. लेकिन यह भी सच है कि अगर आपको जानकारी है कि यह मशीन कैसे काम करती है, तो अपने शरीर और शब्दों से इसे चकमा दिया जा सकता है.
पॉलिग्राफ टेस्ट के दौरान आपके वायटल चिह्नों को रजिस्टर किया जाता है, मसलन, तापमान, पल्स, ब्लड प्रेशर, सांस लेने की गति. इसके बाद आपसे कुछ ऐसे सवाल पूछे जाते हैं जिनका जांच के मुद्दे से कोई लेना देना नहीं होता, जैसे कॉलेज के दिनों में कभी झूठ बोला है, या कभी किसी पर बेवजह गुस्सा आया है. इन्हें ‘कंट्रोल्ड सवाल’ कहा जाता है जिसका जवाब अक्सर ना में दिया जाता है. जबकि ऐसा नामुमकिन ही है कि हमने कभी झूठ न बोला हो. इसलिए जब ऐसे किसी भी सवाल का झूठा जवाब दिया जाता है तो उस वक्त आपके वायटल साइन्स ऊपर नीचे होते हैं. पॉलिग्राफर को इसी से आगे टेस्ट के दौरान परीक्षार्थी के बोले गए बड़े झूठ का निर्धारण करने में मदद मिलती है.
इसके बाद पॉलिग्राफर इन कंट्रोल्ड सवालों में आपकी प्रतिक्रिया (पल्स रेट, ब्लड प्रेशर) की तुलना उन सवालों की प्रतिक्रिया से करता है जो दरअसल जांच का विषय है. अगर कंट्रोल्ड सवालों की प्रतिक्रिया ज्यादा बड़ी है तो आप पास हो गए लेकिन अगर इसके उलट हुआ तो आपका झूठ पकड़ा गया. कुल मिलाकर आपका झूठ तभी झूठ समझा जाएगा जब वो आपके कंट्रोल्ड झूठ से ज्यादा बड़ा होगा.
पॉलिग्राफ की सीमाएं
पॉलिग्राफ झूठ पकड़ने का एक पुराना तरीका है लेकिन इसकी भी अपनी सीमाएं हैं. ज्यादातर रिसर्च ने पॉलिग्राफ की सत्यता को 80 से 90 प्रतिशत के बीच आंका है. यह भी कहा जाता है कि झूठ पकड़ने से जुड़े जो प्रयोग होते आए हैं, उसमें असल जिंदगी के झूठों को परखा ही नहीं जाता है. लैब टेस्ट ज्यादातर ऐसे लोगों पर आज़माए जाते हैं जो सेहतमंद और बुद्धि के स्तर पर भी काफी ऊपर होते हैं. इस तरह के शोध में अपराधियों, बच्चों या औसतन कम बुद्धि वाले लोगों को कम ही शामिल किया जाता है. ऐसे में पॉलिग्राफ टेस्ट को एक आदर्श स्थिति में ही भरोसा किया जा सकता है. लेकिन अफसोस कि झूठ किसी आदर्श स्थिति में नहीं बोला जाता.
सामाजिक मनोविज्ञान के प्रोफेसर एलडर्ट व्रिज ने इस विषय से जुड़ी एक किताब लिखी है – डिटेक्टिंग लाइज़ एंड डिसीट. उनके मुताबिक एक तरह के पॉलिग्राफ टेस्ट ने अक्सर काम किया है. इसे गिल्टी नॉलेज टेस्ट कहते हैं – यह उंगलियों पर पसीने से आपके झूठ को पकड़ता है. इसमें किसी परिस्थिति से आपके जुड़ाव को देखा जाता है. जैसे किसी पार्टी में आप कितने भी खोए हुए क्यों न हो लेकिन जब आपका नाम पुकारा जाता है तो आपका शरीर एक प्रतिक्रिया देता है. इसी तरह जांचकर्ता किसी हत्या से जुड़े मामले में इस गिल्टी टेस्ट का इस्तेमाल करते हैं. वह संदिग्ध के सामने किसी ऐसी जानकारी की बात करते हैं जिसके बारे में हत्यारे के अलावा किसी को नहीं पता होती.
वहीं कुछ आलोचक यह भी मानते हैं कि इस तरह की मशीन इंसान का इंसान पर भरोसा तोड़ रही हैं. लोग यह मानने लग गए हैं कि तकनीक ही यह तय करेगी कि कोई व्यक्ति सच बोल रहा है या झूठ. आरूषी हत्याकांड में तलवार दंपति का भी पॉलिग्राफ टेस्ट हुआ था और इस टेस्ट में उनका पास होना अभी तक कई लोगों के गले नहीं उतरता. वैसे झूठ भी समाज का एक बहुत बड़ा सच है. व्रिज कहते हैं – जिंदगी बहुत अजीब हो जाएगी अगर हर कोई, हर वक्त सच ही बोलता रहेगा. सामाजिक तौर पर हमारे लिए जिंदगी बहुत मुश्किल हो जाएगी. अगर लोग हमसे हर वक्त सच कहेंगे तो हमारे स्वाभिमान के लिए यह बहुत बुरा होगा. दिन में थोड़ा बहुत झूठ बोलना तो चलता है. नोट – प्रत्येक फोटो प्रतीकात्मक है (फोटो स्रोत: गूगल) [ डिसक्लेमर: यह न्यूज वेबसाइट से मिली जानकारियों के आधार पर बनाई गई है. EkBharat News अपनी तरफ से इसकी पुष्टि नहीं करता है. ]