Israel के बाद India बना यहूदियों का दूसरा घर देखिये video
भारत में यहूदियों के इतिहास को देखने से पहले 11 सितंबर 1893 को शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में दिए गए स्वामी विवेकानंद के भाषण को समझ लेना जरूरी है.स्वामी विवेकानंद ने भाषण में कहा था कि “मुझे गर्व है कि मैं उस देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और सताए हुए लोगों को अपने यहां शरण दी है.”“मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन इजराइलियों की पवित्र यादों को संजोकर रखा है, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़कर खंडहर बना दिया था और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी.”यहां दो बातें तो साफ हैं, पहली ये कि जब रोमन शासकों ने यहूदियों के पवित्र धार्मिक स्थलों में तोड़फोड़ की, तब ये लोग अपने धर्म को बचाए रखने के लिए सुदूर भारत की ओर निकले. दूसरी ये कि इन्होंने सबसे पहले
समुद्र किनारे दक्षिण भारत को अपना ठिकाना बनाया
एेसे में आइए एक बार फिर से यहूदियों के भारत सफर पर चलते हैं, जब वो भारत में आए –4000 साल पुराना है यहूदी धर्मयहूदी दुनिया के सबसे पुराने धर्मों में से एक है.माना जाता है कि यहूदी धर्म आज से लगभग 4000 साल पुराना है. वर्तमान इजराइल देश का राजधर्म यहूदी ही है.यहूदियों के इतिहास के बारे में ईसाईयों के धर्म ग्रंथ बाइबिल के प्रथम खंड और यहूदियों के सबसे प्राचीन ग्रंथ ‘ओल्ड टेस्टामेंट’ में भी काफी कुछ लिखा है. ओल्ड टेस्टामेंट के अनुसार, यहूदी धर्म की शुरूआत ईसा से 2000 साल पहले पैदा हुए पैगंबर हजरत अब्राहम से होती है. इन्हें इस्लाम में इब्राहिम, ईसाईयों में अब्राहम कहा जाता है.ऐसा विश्वास है कि पैगंबर अब्राहम के पोते हजरत याकूब का दूसरा नाम इजराइल था. याकूब ने यहूदियों की 12 जातियों को मिलाकर एक राष्ट्र इजराइल का निर्माण किया था.
वहीं, याकूब के बेटे का नाम यहूदा था. शायद यहीं से इनके वंशज यहूदी कहलाए. वहीं, इनका धर्म यहूदी हो गया.यहूदियों के ईश्वर यहोवा हैं. यहोवा का जिक्र ईसाईयों के पवित्र ग्रंथ बाइबिल में भी कई बार आया है. इनके मंदिरों में कोई भगवान की मूर्ति नहीं होती. यहूदी लोग एक ईश्वर की पूजा करते हैं.यहूदियों के पवित्र ग्रंथ का नाम है तनख. ये इब्रानी या हिब्रू जबान में लिखा हुआ है. इसे तालमुद या तोरा भी कहा जाता है.माना जाता है कि इजराइल की राजधानी जेरुशलम में यहूदियों का पवित्र मंदिर सुलैमानी हुआ करता था, जिसकी आज एक दीवार ही शेष बची है. इसी दीवार की ओर मुंह कर यहूदी लोग पूजा करते हैं. कहा जाता है कि यहीं पर हजरत मूसा ने यहूदियों को धर्म की शिक्षा दी थी.भारत ने पाले हैं प्राचीन यहूदी समुदाय!भारत ने सदियों से 3 विशिष्ट प्राचीन यहूदी समूहों बेने इज़राइली, कोचीन यहूदी और यूरोप से आए सफेद यहूदियों की विरासत को संभाले रखा है. इन्हें फलने-फूलने का मौका दिया है.
भारत में यहूदियों का इतिहास बताता है कि मध्ययुगीन काल में व्यापार के उद्देश्यों के लिए यूरोप के यहूदी व्यापारियों ने भारत की यात्रा की थीं. हालांकि उन्होंने दक्षिण एशिया में स्थायी बस्तियों का गठन किया या नहीं, इस बारे में साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं.भारत में रहने वाले यहूदियों के बारे में पहला विश्वसनीय साक्ष्य 11वीं शताब्दी की शुरुआत में मिलता है. माना जाता है कि पहले यहूदी बस्तियां भारत के पश्चिमी तट पर बसाई गई थीं.16वीं और 17वीं सदी में किए गए प्रवासों के दौरान फारस, अफगानिस्तान और चरासीन (मध्य एशिया) से आए यहूदियों ने उत्तरी भारत और कश्मीर में बस्तियों का निर्माण किया था.
मुंबई था यहूदियों का बड़ा केंद्र
18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक बंबई भारत में यहूदी समुदाय का सबसे बड़ा केंद्र था. बेने इज़राइली यहूदी बंबई में रहते थे. इसके बाद इराकी और फिर फारसी यहूदी यहां आए.बेने इजराइली यहूदियों का वो समूह है, जो लगभग दो हजार साल पहले भारत के कोंकण क्षेत्र के गांव से निकलकर भारतीय शहरों में बस गए. बेने इज़राइली मुख्य रूप से बंबई, पुणे, कराची और अहमदाबाद जैसे शहरों में रहते थे. इनकी मूल भाषा जुदेओ-मराठी थी.माना जाता है कि ये लोग करीब 2,100 साल पहले भारत आए थे. इन्होंने एक जहाज के द्वारा इजराइल से मुंबई के दक्षिण में नौगांव तक का सफर किया था.अनुसार, इजरायल, रूस और ईरान के बाद भारत का यहूदी समुदाय चौथा सबसे बड़ा एशियाई यहूदी समुदाय है. 1830 के दशक में, भारत में रहने वाले यहूदी समुदाय की संख्या 6,000 थी. सदी के अंत तक ये संख्या बढ़कर लगभग 10,000 हो गई.1948 में जब इज़राइल राष्ट्र को एक देश के तौर पर वैश्विक मान्यता मिली, तब भारत में लगभग 20,000 की संख्या में बेने इज़राइली यहूदी आबादी थी. हालांकि इसके बाद इज़राइल देश को मान्यता मिली और तब से ज्यादातर बेने इज़राइली इज़राइल चले गए. अब लगभग 5,000 से भी कम यहूदी भारत में रहते हैं.
सबसे पहले कोचीन में बसे यहूदी!
दक्षिणी भारत के कोचीन में रहने वाले ‘काले यहूदी’ भारत आने वाले पहले यहूदी माने जाते हैं. वर्तमान में केरल राज्य के मूल निवासी ये लोग परंपरागत रूप से जुदेओ-मलयालम जबान बोलते हैं.कहा जाता है कि इज़राइल के राजा सुलैमान के शासनकाल के दौरान इजराइल साम्राज्य के विभाजन के बाद ये यहूदी मालाबार के तट पर आकर बस गए थे.इनके बाद व्हाइट यहूदी भारत में आए, जो पश्चिमी यूरोपीय देशों जैसे हॉलैंड और स्पेन से भारत आये थे. ये लोग लादीनो की प्राचीन सेफर्डिक भाषा बोलते थे. 15वीं शताब्दी में स्पेनिश और पुर्तगाली यहूदियों ने गोव में आना शुरू किया था.वहीं, 17वीं और 18वीं सदी में मध्य पूर्व, उत्तरी अफ्रीका और स्पेन से आने वाले यहूदी कोचीन में बस गए. कोचीन के यहूदी आज भी ये कहते हैं कि वे 70 ई. में मंदिर के विनाश के बाद दक्षिण-पश्चिम भारत में कोचीन के पास एक प्राचीनबंदरगाह पर आए थे.जापान तक फैला था व्यापार18वीं शताब्दी के अंत में, भारतीय यहूदियों का एक तीसरा समूह दिखाई दिया. ये मध्य-पूर्व के यहूदी थे, जो व्यापार करने के लिए भारत आए थे. इन्होंने अलेप्पो से बगदाद, बसरा से सूरत/बॉम्बे तक, कलकत्ता से रंगून, सिंगापुर से हांगकांग तक और कोबे, जापान तक अपने व्यापार नेटवर्क को फैला लिया था.
वहीं, एक यहूदी समूह कलकत्ता में भी रहता था. कलकत्ता समुदाय के संस्थापक शालोम अहरोन ओवाडियाह हाकोहेन को माना जाता है. 1762 को अलेप्पो में पैदा हुए हाकोहेन ने 1789 में अलेप्पो छोड़ दिया था. ये 1792 में सूरत पहुंचे और फिर 1798 में वहां से कलकत्ता.भारत के नॉर्थ-ईस्ट राज्य मिजोरम और मणिपुर में भी यहूदियों का एक समुदाय ‘बेने मेनाशे’ रहता है. ये चिन-कुकि मिजो जनजाति के सदस्य हैं, जो तिब्बत-बर्मन भाषा बोलते हैं. पीढ़ियों से इन्होंने यहूदी परंपराओं को संजोकर रखा है. ये समुदाय ‘मेनाशे’ जनजाति से होने का दावा करते हैं. जो इज़राइल की 10 खोई हुए जनजातियों में से एक है, जिसे 8वीं शताब्दी में अस्सीरियों द्वारा निर्वासित कर दिया गया था.इसी तरह से ‘बेने एफराइम’ यहूदियों का एक छोटा समूह है, जिसे तेलुगु यहूदी भी कहा जाता है. आंध्र प्रदेश के दक्षिण पूर्व इलाकों में रहने वाले ये यहूदी लोग तेलुगु भाषा बोलते हैं.नोट – प्रत्येक फोटो प्रतीकात्मक है (फोटो स्रोत: गूगल) [ डिसक्लेमर: यह न्यूज वेबसाइट से मिली जानकारियों के आधार पर बनाई गई है. EkBharat News अपनी तरफ से इसकी पुष्टि नहीं करता है. ]